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‘निर्मल वर्मा’ जी के जन्मदिन पर एक निजी लेख...


 


“साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ़ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है | जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो, तो जागने पर सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे थे |”


- “निर्मल वर्मा”


स्त्री शोषण , सामाजिक शोषण व् गरीबी पर हिंदी साहित्य में अनेक कथाएं लिखी गयी हैं परन्तु निर्मल वर्मा ने कहानियों को एक भिन्न दिशा दिखाई हैं | उन्होंने न केवल अकेलेपन और मानसिक स्थिति जैसे विषयों पर लिखा बल्कि मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग में होने वाले अधूरे प्रेम और अपूर्ण लोगों को अपनी कथा का मुख्य पात्र बनाया | इसीलिए शायद निर्मल वर्मा को हिंदी साहित्य में आधुनिक कथाकार के तौर पर भी जाना जाता है | उन्होंने हमें हिंदी साहित्य में आधुनिक कहानियों की कमी का बोध कराया है |


यह लेख उनके जीवनकाल, उनके साहित्यिक योगदान और सम्मान - पुरस्कार पर नहीं है | यह लेख समर्पित है एक शिष्य का अपने अप्रत्यक्ष गुरु के लिए |

मैंने कई दरवाज़े खटखटायें और उनमें मिली मुझे केवल दीवारें | मानो जब मैंने दरवाज़ा खोला, तब दरवाज़े के भीतर एक सफ़ेद दीवार मेरी ओर घूरती हुई पूछ रही थी कि “किसे ढूंढ रहे हो?”| मैं कुछ देर दीवार को उत्तर देता रहा अपनी आँखों से कि क्या तुम देख सकती हो मेरी आँखों में, बाँध की दीवार बन चुकी है | मैं दूसरे दरवाज़े की ओर चल दिया, इस उम्मीद से कि उसमें मुझे मेरे उत्तर मिलेंगे | एक, दो, फिर तीन... फिर दस... फिर बीस | मुझे दरवाजों में मिली केवल दीवार | सफ़ेद रंग की, खुरदुरी-सी दीवार | जब मैं थक कर एक दरवाज़े के सामने अपने घुटनों पे बैठ गया तब एक दरवाज़ा खुला जिसमे से एक हाथ ने इशारा किया कि अंदर आजाओ | मैंने उस हाथ को थामा | उस बूढ़े से हाथ ने बड़ी ख़ूबसूरती के साथ मुझे भीतर खीच लिया | वह हाथ निर्मल वर्मा का था जब मैं अपने जीवन में कला का महत्त्व तलाश रहा था, अपनी जिज्ञासाओं का बोझ लिए दर-दर भटक रहा था, और लोगों में, किताबों में , सिनेमा में तब एक वही थे जिन्होंने मुझे मार्ग दर्शन दिया |

मैं उनकी डायरी में लिखी एक पंक्ति को यहाँ पेश करता हूँ तब, शायद आप बेहतर समझ पाएँगे |


सुख की तलाश आंखमिचौनी का खेल है - जब तुम उसे खोजते हो, तो वह ओझल हो जाता है, फिर वह अचानक तुम्हें पकड़ लेता है, जब तुम अपनी यातना कि ओट में मुँह छिपाकर बैठे हो |”





उनकी कहानियाँ जब मैंने पहली बार पढ़ी थी तब मुझे यह एहसास हुआ कि कैसे उन्होंने यथार्थ को ठीक यथार्थ के दृष्टिकोण से देखा है | जैसे यथार्थ कोई ऊन का स्वेटर हो और उन्होंने उसे बारीकी से उधेड़ दिया हो | जब मैंने उनकी बाकी कहानियों को पढ़ा जैसे कि कव्वे और काला पानी, तब मुझे ज्ञात हुआ कि वह उस ऊन को उधेड़ना जानते हैं तो फिर से उसी ऊन से उसका दूसरा स्वेटर भी बनाने की क्षमता रखते हैं |


मैंने जाना कि वह केवल कथाकार ही नहीं थे उन्होंने अपने जीवन में डायरी,कलात्मक लेख और अपने पाठक और साथियों के लिए कई पत्र भी लिखे है | मुझे याद है मैं जब उनकी डायरी पढने बैठा तो मैं हर पन्ने को पढने में 2 से 3 घंटा व्यतीत कर देता था | मुझे लगता है वह न केवल आधुनिक कथाकार बल्कि एक वरिष्ठ विचारक भी थे |


उनकी डायरी मेरे लिए गीता से कम नहीं | मुझे माफ़ करे कि मैं उसकी गीता से तुलना कर रहा हूँ | हाँ , शायद तुलना करना ठीक नहीं होगा | परन्तु जब भी मैं अपने जीवन के रास्तों में भटक जाता हूँ या यातना से मेरा दिल चीख़ उठता है तो मैं उनकी डायरी उठाकर किसी भी पन्ने से पढना शुरू कर देता हूँ जैसे कोई बालक साइकिल से गिरने के बाद अपने पिता के पास रोता हुआ जाता है | मेरे लिए वो डायरी पढने का अनुभव एसा है मानो मेरा उनके पास जाकर बैठ जाना और उनका मुझसे पूछना कि “तुमने कभी दुःख का चेहरा देखा है?” और मैं उन्हें कुछ देर एक टक देखता हूँ फिर ज़मीन में कुछ कृतियाँ ढूँढने लगता हूँ | मुझे कभी भी उनके सवालों का उत्तर नहीं पता होता पर फिर भी मैं उनके पास जाता हूँ | एक आस में | एक उम्मीद में | सर्दियों कि धूप सी उम्मीद, जिसमे हलकी ठण्ड भी होती है मगर आपको धूप में बैठना भी पसंद होता है |


उनकी डायरी ने मेरे लिए विश्व साहित्य के द्वार खोल दिए जैसे कह रहे हो कि देखो कितना कुछ है जान ने के लिए हर जगह और कितना कुछ जानना-पढना बाकी है | मुझे कामू , गोएथे , रिल्के आदि से परिचय कराने में पूरी सहायता की |

साहित्य के प्रति उनके गहरे ज्ञान की झलक उनके लेखों में, उनके साक्षात्कारों में साफ़ झलकती है |


उनकी किताब कला और जोख़िम में लिखे लेख पढ़कर मैं समकालीन साहित्य के करीब जा पहुँचा और मैंने पाया बदलता हुआ, तेज़ी से जाता हुआ साहित्य जिसकी भीड़ में मैं शायद खो जाऊं | वह हर बार मुझे आश्चर्यचकित कर देते है जैसे मैं कोई गेंद हूँ और मुझे बल्ले से मार कर किसी दिशा में भेज दिया हो | मैं हर बार जब वापस अपने स्थान पर लौटता हूँ तब नया वाला मैं, पिछले वाले मैं से भिन्न हो जाता है | बेहतर ठीक शब्द होगा, हाँ, बेहतर हो जाता हूँ | मेरे साहित्यिक मोह को साहित्यिक प्रेम बनाने में सबसे बड़ा योगदान निर्मल जी का ही रहा है | मैं चाहता हूँ सभी पाठकों से कि आपको जब भी समय मिले तो निर्मल जी कि कुछ रचनाओं को जरूर पढ़े | हाँ, और साहित्कारों जैसे निर्मल जी आम पाठकों में उतने मशहूर नहीं है |

हो सकता है आपको निर्मल जी कि कथाएँ उतना न आकर्षित करें पर किसी न किसी कथाकार की रचना आपको ज़रूर अचम्भे में डाल सकती है और शायद आपको बेहतर व्यक्ति बनने में आपकी सहायता भी कर सकती है इसलिए साहित्य ज़रूर पढ़ते रहिये |


लेखकों के लिए निर्मल जी द्वारा कुछ जरूरी बात -


जब तक हम यह न जान पाएँ कि हम 'लिखने' से क्या पाना चाहते हैं, तब तक हम काग़ज़ की खाली स्पेस में एक वाक्य से दूसरे वाक्य तक निरर्थक भटकते रहते हैं |”


 


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