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भोंसले - मेरी सिनेमा यात्रा।

Updated: Jul 3, 2020




निर्देशक - देवाशीष मखीजा

लेखक - देवाशीष मखीजा, मिरात त्रिवेदी



मुझे बम्बई आए तीन महीने ही हुए थे, मैं भी आया था सपनों की पोटली बाँधकर, इस शहर में अपनी पहचान बनाने। मेरे पास अभी तक कोई भी काम नही था, सुबह उठकर चाय बनाना, मेल करना और फिर जवाब का लंबा इंतजार से भरा दिन रोज एक ही तरह से व्यतीत होता था। मैं अपने उन 2 दिनों के बीच का अंतर भी ठीक से नहीं बता सकता था। हर दिन पिछले दिन का प्रतिमबिम्ब प्रतीत होता था। उसी दौरान MAMI ने भोंसले की स्पेशल स्क्रीनिंग रखी थी। निठल्ले व्यक्ति के पास जब कोई कार्य नहीं होता तो वो कार्य खोज लेता है किसी भी स्तिथि में। मैंने भोंसले के लिए अप्लाई किया और invitation mail भी आ गया। मेरा पहला मेल जिसका मुझे इंतज़ार भी नहीं था, वो मेरे inbox में सबसे ऊपर बैठा था।

मैं पहली बार Juhu PVR पहुंचा। वहाँ पर मेरी पहली फ़िल्म थी भोंसले। हाँ, काफी भीड़ जमा हो रखी थी क्योंकि निर्देशक के साथ आज मनोज बाजपेयी भी आने वाले थे। सब आपस में बात कर रहे थे , मुझे लगा मैं ही इस भीड़ में अकेला था, जिसे अभी तक बम्बई शहर ने स्वीकार नहीं किया।


भोंसले फ़िल्म की शुरुवात होती है, गणेश की मूर्ति बनती है और साथ intercut में भोंसले दिखता है। एक तरफ़ गणपति की मूरत बन रही है सुंदर, अलौकिक, शौर्य से भरपूर और दोसरी तरफ़ भोंसले का मुरझाया चेहरा, पीड़ा से भरा, झूर्रियों से लदा। शुरुवात के 40 मिन तक मुझे डर का आभास हुआ, सच कहूँ तो असली horror. मैं आँखें भींच कर देखने लगा। बार बार वही प्रक्रिया, अकेलापन, जैसे मैली दीवारें आपको ख़ुद निगलने वाली है। भयानक डर न चुड़ैल, न जिन्द, न भूत से लगता है, सबसे भयानक डर केवल यथार्थ से होता है। भविष्य के सच को स्वीकार करने का डर, असफ़लताओ का डर और फ़िर डर का डर। मैं डरने लगे था, मुझे काफ़्का का metamorphosis याद आने लगा, जैसे आज घर वापस लौटकर अगले दिन की सुबह जब उठूँगा तो अपने आप को बूढ़ा, अकेला और दरिद्र पाउँगा।


भोंसले

मेरा मानना है कि इस फ़िल्म को अकेले देखे, थिएटर में जैसे ही वो दृश्य आपको धीमे धीमे भीतर खींचने लगता है और आप घबरा जाते है तभी आप अपने बाजू में बैठे व्यक्ति से एक संवाद करने का प्रयत्न करते है और कह देते है कि फ़िल्म में कुछ हो नहीं रहा या कह दे कि पेस बहुत धीमा है। जबकि आप जानते है कि आप झूठ बोल रहे है, खुदसे। आपको डर लगने लगता है। यह शब्दो के परे वाला डर है।


भोंसले परेशान था, दुखी था। उससे उसकी पहचान छीन ली गयी थी, वहीं विलास जो कि एक टैक्सी चालक है उसे समाज के सामने अपनी एक अच्छी छवि बनानी थी। मैं स्वयं खुदको विलास से ही जोड़ पा रहा था, उसकी तरह ही मुझे भी पहचान बनानी थी इस शहर में, कोई अच्छा काम चाहिए था।


नए शहर में दोस्त बनाना बड़ा मुश्किल होता है, आपकी जैसी सोच वाले ही लोग मिल जाए, यह संभव तो नहीं। मेरा भी बम्बई में अभी तक कोई भी दोस्त नहीं था। PG में जो थे जान पहचान वाले ही थे बस, लेकिन वो लोग भी डराते थे कि यहाँ काम मिलना आसान नहीं है। उस पल में मैं वहाँ लालू था, सहमा, अकेला और एक दोस्त की तलाश में।


मुझे इस बात का कोई खेद नहीं कि अभिषेक बीच फ़िल्म के बाद दुबारा दिखाई नहीं दिए क्योंकि अक्सर ऐसा ही होता है, व्यक्ति हमको मुसीबत में डालने के बाद अदृश्य होजाता है। हम बस उसके जीवन का एक पड़ाव होते है। वो पड़ाव पर होते ही वो आगे कहीं अपनी दुनिया में चला जाता है। उनसे फ़िर मिलने की कोई उम्मीद नहीं रहती जैसे कि मेरा ब्रोकर। PG दिलाते वक़्त उसने बताया कि यह बहुत शांत और बेहतरीन जगह है, बल्कि यह उसके ठीक विपरीत जगह थी।


असफलताओ से दबा हुआ विलास

फ़िल्म के अंत से पहले तक मेरे मन में विलास के लिए करुणा थी, क्या चाहिए था उसे? बस एक अच्छी पहचान, समाज में इज्ज़त। व्यक्ति को जब पहचान नसीब नही होती तब वो जाति, धर्म, स्थान का सहारा लेकर पहचान बनाने की कोशिश करता है। वहीं वो धीमे धीमे भटकने लगता है। उसने अपने मराठी होने की पहचान का इस्तेमाल किया। मगर असली पहचान व्यक्ति की उसके कार्यों से होती है। संसार में लोग दूसरों के सम्मान को कुचल कर ही अपना सम्मान प्राप्त करते है। विलास ने भी लालू की गलती का पूर्ण फायदा उठाने का प्रयास किया मगर मिली तो हमेशा असफलताएँ। साम, दाम, दंड, भेद अपना ने के बावजूद जब विलास की इज्ज़त चॉल में नहीं बन पाई तब मुझे विलास के लिए पीड़ा भी हुई। मगर निराशा में डूबे विलास ने जो प्रतिशोध लेने के लिए कार्य किया वो पाप था। पाप , भूल और गलती से बड़ा होता है। वहीं उसी पल मैं विलास से बहुत दूर होगया। मुझे विलास से उम्मीद नहीं थी कि वह इतना तुच्छ कार्य करेगा। मगर प्रतिशोध की ज्वाला प्रचंड हो तो व्यक्ति खुद अपने वश में नहीं होता है और अपना क्रोध कमजोर व्यक्तियों पे दिखाता है। इसके लिए मुझे रामायण से एक दोहा याद आता है:-


सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा।।

जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।।



लालू और उसकी बड़ी बहन सीता

भोंसले के पास अब खोने को कुछ नहीं था, विलास के अधर्म के लिए भोंसले की प्रतिक्रिया अमानवीय थी। जब इंसान अपनी पहचान खोने लगता है वो आधा होजाता है। जिसके पास जब जीवन का मोह तक ख़त्म होजाए, आखिरी दिनों में शायद वो कुछ ऐसा करना चाहता हो जो शायद अपने लिए न हो। जरूरी नहीं है कि अपने ड्यूटी के समय में उनसे कोई गलती न हुई हो या अपराध न किये हो। भोंसले भी परेशान होगया था अपने वरिष्ठ अधिकारियों से और प्रशाशन से।


फ़िल्म का अंत हुआ, QnA सेशन के बाद सभी लोग नीचे की ओर भागे, निर्देशक और मनोज बाजपेयी के साथ तस्वीरे लेने के लिए, मगर मैं वहीं खड़ा था उस शौचालय के बाहर, जहाँ विलास और भोंसले की देह पेड़ी थी और कानों में भोंसले का साउंडट्रैक चल रहा था जो मुझे हमेशा समंदर में डुबो रहा था। अब न ही मैं तैर पा रहा था और न हो डूब पा रहा था। तब मुझे एहसास हुआ कि "हम सब आरम्भ में विलास होते है, और अंत तक भोंसले बन जाते है। "



अंत में मैं अल्बर्ट कामू की लिखी एक पंक्ति कहना चाहूँगा

"The only way to deal with an unfree world is to become so absolutely free that your very existence is an act of rebellion."



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